उपन्यास >> मन्नू की वह एक रात मन्नू की वह एक रातप्रदीप श्रीवास्तव
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भावुक मिलन के बाद दोनों बहनें शांत तो हो गई थीं लेकिन दोनों के आंसू शांत नहीं हुए थे....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
बरसों बाद अपनी छोटी बहन को पाकर मन्नू चाची फिर अपनी पोथी खोल बैठी थीं। छोटी बहन बिब्बो सवेरे ही बस से आई थी। आई क्या थी सच तो यह था कि बेटों-बहुओं की आए दिन की किच-किच से ऊब कर घर छोड आई थी। और बडी बहन के यहां इसलिए आई क्योंकि वह पिछले एक बरस से अकेली ही रह रही थी। वह थी तो बड़ी बहन से करीब पांच बरस छोटी मगर देखने में बडी बहन से दो-चार बरस बडी ही लगती थी। मन्नू जहां पैंसठ की उम्र में भी पचपन से ज्यादा की नहीं दिखती थी वहीं वह करीब साठ की उम्र में ही पैंसठ की लगती थी। चलना फिरना दूभर था। सुलतानपुर से किसी परिचित कंडेक्टर की सहायता से जैसे-तैसे आई थी। मिलते ही दोनों बहनें गले मिलीं और फफक पडी। इसके पहले उन्हें किसी ने इस तरह भाबुक होते और मिलते नहीं देखा था।
कहने को दोनों के सगे बहुत थे। लेकिन आज दोनों एकदम अकेली थीं। छोटी बहन जहां बच्चों के स्वार्थ में अंधे हो जाने के कारण अपने को निपट अकेली पा रही थी, वहीं बड़ी बहन इसलिए अकेली थी क्योंकि बेटा-बीवी के कहे पर ऐसा दीवाना हुआ कि जिस मां को खाना खिलाए बिना खाता नहीं था, वह घर छोडते वक्त न सिर्फ एक-एक सामान ले गया बल्कि मिन्नत करती मां की तरफ एक बार देखा तक नहीं। मां कहती रह गई ‘बेटा एक बार तो गले लग जा। मत जा छोड के, तू जो कहेगा हम करेंगे। मगर बेटा कहां देखता, कहां सुनता। वह तो अपनी आंखें, अपने कान, दिमाग अपनी बीवी के हवाले कर चुका था। और बीवी सास को दुश्मन की तरह देखती थी। एक क्षण उसे बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। शादी के बाद तीन महीने में ही सास को तीनों लोक दिखा के चली गई थी।
भावुक मिलन के बाद दोनों बहनें शांत तो हो गई थीं लेकिन दोनों के आंसू शांत नहीं हुए थे। आंचल के कोर से वह बार-बार आंखें पोंछती लेकिन वह फिर भर आतीं। कुछ देर बाद मन्नू ने कुछ बिस्कुट और पानी बिब्बो के सामने रख कर कहा ‘लो पानी पिओ बहुत थकी हुई लग रही हो। मैं चाय बना कर लाती हूं।
‘अरे ! नहीं दीदी तुम बैठो मैं बना लाती हूं।
‘तुम क्या बनाओगी, तुम्हारी हालत तो ऐसे ही खराब है। तुम आराम करो मैं बना कर ला रही हूं। मन्नू ने उठते हुए कहा।
बिब्बो का मन तो था कि वह चाय खुद बनाए लेकिन पैरों की तकलीफ ने उसे उठने न दिया। किचेन में चाय बनाते हुए मन्नू ने पूछा,
‘बिब्बो इतनी दूर से अकेली क्यों आ गई किसी लडके के साथ आती। एक दिन की छुट्टी तो तुम्हारे बेटों को मिल ही सकती है न।
‘क्या दीदी तुम भी सब कुछ जान कर दिल जलाती हो। बेटों को एक दिन ही नहीं महीनों की छुट्टी मिल जाती है मगर जब उनके सास-ससुर, साली-सरहज कहती हैं तब। वो सब मां के लिए छुट्टी नहीं ले सकते क्योंकि वह तो मां से छुट्टी पाना चाहते हैं। ये तो कहो कि पेंशन मिल रही है तो खाना मिल जा रहा है नहीं तो भीख मांगनी पडती। मैं तो कहती हूं कि सभी मेरा पीछा छोड दो, मैं अकेले ही रह लूंगी लेकिन सब छोडते भी नहीं हैं। बस पेंशन मिलते ही पीछे पड जाते हैं। किसी न किसी तरह एक-एक पैसा निकलवा कर ही दम लेते हैं।‘
‘पर बिब्बो तुम्हारा छोटा बेटा अंशुल तो बहुत मानता था तुम्हें। हम लोग अक्सर कहते थे कि आज के जमाने में औलाद हो तो अंशुल जैसी।
‘हां बहुत मानता था। लेकिन अब तो उसके लिए चारो धाम, सारी दुनिया उसके सास-ससुर हैं। उसका बस चले तो वह सुबह शाम उनकी पूजा करे। उसकी सारी कमाई निगोडे ससुराल वाले पी रहे हैं।
‘सही कह रही हो बिब्बो, पता नहीं ये लडकी वाले कौन सी घुट्टी पिला देते हैं इन लडकों को कि ये अपने मां-बाप को ही दुश्मन मान बैठते हैं। मन्नू ने चाय की ट्रे बिब्बो के सामने रखते हुए कहा,
‘दीदी मैं तो कहती हूं कि इन लडकी वालों का वश चले तो लडके के घर वालों को मार कर भगा दें और पूरे घर पर कब्जा कर लें। चाय के कुछ घूंट लेने के बाद मानो डिब्बो की आवाज कुछ ज्यादा तेज हो गई थी।
‘हां.. मगर एक जमाना वह भी था जब लडकी वाले उसकी ससुराल के यहां का पानी तक नहीं पीते थे। मगर आज सास हो या साली या फिर ससुर से लेकर सरहज तक सब दामाद के घर में आकर बेशर्मी से पड़े रोटी तोडते हैं।
‘हां। मगर सच तो ये है दीदी की अगर हमारे लड़के न चाहें तो क्या मजाल है कि बहू और उसके घर वाले आग मूतैं।
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